गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

नवगीत: माटी के पुतले है... आचार्य संजीव सलिल

हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.

फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर

आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता

मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
***************

3 टिप्‍पणियां:

  1. सच में हम माटी के पुतले हैं। थोडा सा पानी मिला कि हम में चमक आ जाती है और थोड़ी सी धूप से हमारी रंगत चले जाती है। प्रेरणादायी विचार। मैंने भी नवगीत की पाठशाला में अपना नवगीत भेजा था लेकिन उस पर विशेषज्ञों की समीक्षा नहीं हुई, आप ही समीक्षा करने की कृपा करें, तो हमारा प्रयास सार्थक होगा।

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय सलिल साहब,
    सच इस गीत पर नत-मस्तक हैं हम। यह पता नहीं चलता सर, के शब्द आप के पास आकर यह उन्नत और सुन्दर रास-नृत्य कैसे कर लेते हैं ? भाव बयार बन कर बहते चलते हैं, अहा ! आपका सानिध्य और वरद हस्त सदा हम सब पर बना रहे यही दुआ है अल्ला मियाँ से।

    जवाब देंहटाएं